​​​​​​​कश्मीरी पंडित - इतिहास के आईने में -दूसरी किस्त

​​​​​​​कश्मीरी पंडित - इतिहास के आईने में -दूसरी किस्त


कश्मीरी पंडित - इतिहास के आईने में (दूसरी किस्त)

अर्जुनदेव मजबूर

इतिहास के बौद्ध-युग से कुछ आगे चलें तो हमें शैव मत और वैष्णव मत में आस्था रखने वाले कश्मीरी पंडितों का एक लंबा युग मिलता है। इस युग में बौद्ध धर्म काफी क्षीण होकर शैव और वैष्णव मत के साथ चल रहा था। शैव मत को जहां दक्षिण भारत ने कई विद्वान दार्शनिक दिए वहां इस मत को और इसके दर्शन को कश्मीर के महान पंडितों का योगदान कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।

825 ई. में वसु गुप्त ने शैव दर्शन की बुनियाद स्थिर की। बारहवीं शताब्दी तक इस दर्शन को आगे बढ़ाने के लिए कई आचार्यों, पंडितों और दर्शनकारों ने इतना काम किया कि अभी तक उसके पुष्प प्रस्फुटित होते आ रहे हैं। अनेक विद्वानों ने इस देन को सराहा है। विद्वानों तथा शैव भक्तों की यह श्रृंखला पूज्य श्री लक्ष्मण जू तक आ पहुंची। इनका देहावसान गत वर्ष हो चुका है इनके कुछ विदेशी शिष्य भी इनके स्थापित आश्रम (श्वेश्वर- 'इम्बर') श्रीनगर में आकर इनके प्रवचनों से लाभान्वित होते रहे है। जम्मू में कई वर्षों से प्रोफेसर बलजीनाथ पंडित जो कुलगाम कश्मीर के रहने वाले हैं, शैवशास्त्रों पर खासा काम कर चुके है। काश्मीर के शैवाचायों में सोमानंद, उत्पलदेव, क्षेमराज और आचार्य अभिनव गुप्त के अतिरिक्त कई नाम ऐसे हैं जो कश्मीरी पंडितों की परंपरा को कर चुके हैं। इस संबंध में भी एक अलग लेख की जरूरत होगी। किंतु इस लेखमाला में संकेत ही किया जा सकता है। शैव दर्शन और शैव धर्म पर भारत तथा बाहर के विद्वानों ने बहुत कुछ लिखा है। विशेषकर "विक" दर्शन कश्मीर की ही देन है जो शैव-दर्शन क्षेत्र में एक महान उपलब्धि है।

जहां तक कश्मीरी पंडितों के रीति रिवाजों और उत्सवों का संबंध है इनका स्पष्ट जिक्र हमें नीलमत पुराण में

मिलता है। नीलमत पुराण कोई चौदह सौ वर्ष पुराना है और इस कृति में कश्मीर के भूगोल, नदियों, वेशभूषा, कलाओं, धार्मिक कृत्यों, सांस्कृतिक गतिविधियों और हमारे उत्सवों के अतिरिक्त कश्मीर के प्राचीन इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। नाग युग की यह दस्तावेज कश्मीर के पूर्व काल को समझने के लिए महत्वपूर्ण संकेत उपस्थित करती है। यह पहला ग्रंथ है जो कश्मीरी सभ्यता और संस्कृति पर सीधे तौर पर सबूत पेश करता है और कश्मीरी पंडितों के विद्याप्रेम, कला तथा कौशल और एक संपन्न जीवन का नक्शा हमारे सामने रखता है। यह ग्रंथ राजा जन्मेजय और ब्राह्मण वैणम्पायन के बीच एक लंबे संवाद द्वारा तथ्यों और इतिहास को उकेरता है। यह दोनों नाम महाभारत में सम्मिलित हैं और विचित्र बात यह कि कश्मीर के राजा गोनंद को अपने संबंधी जरासंध ने यादव-कुल के विरुद्ध लड़ने के लिए बुलाया था। गोनंद वहां श्रीकृष्ण के भ्राता बलराम द्वारा मारा गया। श्रीकृष्ण ने दामोदर की रानी यशोवती को तख्त पर बिठाया। मैंने आरंभ में कहा है कि कश्मीरी पंडितों के पूर्वजों का संबंध उत्तर कौरवों से जुड़ता है।

नीलमत में सतीसर के कश्यप द्वारा सुखाने और बस्तियां बसाने तथा नील राजा द्वारा शासन करने का जिक्र विस्तार से हुआ है।

जिन त्योहारों का ज़िक्र नीलमत पूर्ण रूप से करता है। उनमें से निम्नलिखित त्योहार कश्मीरी पंडित, चाहे वे कहीं भी हों, बड़े उत्साह के साथ मनाते आ रहे हैं। यह त्योहार हैं:

((1) सुख सुप्तका (कार्तिक पूर्णिमा पर दीपमाला और लक्ष्मी पूजन) आजकल इसे दीवाली कहते हैं।

(2) नव सम्वत्सर महोत्सव। यह दिवस चैत्र ओंकदोह के दिन 'नवरेह' नाम से बड़े उत्साह और आनंद से मनाया जाता है।

(3) श्रावण द्वादशी श्रावण "बाह" नाम से मनाया जाता है। शुपयन में इस दिन बहुत बड़ी यात्रा लगती है।

(4) बुद्ध जन्म। वैशाख शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है बुद्ध को विष्णु का अवतार माना जाता है।

(5) विनायक अष्टमी: आषाद कृष्ण पक्ष अष्टमी को गणपति का दिवस होता है और कार्य सिद्धि के लिए मनाया जाता है। गणपत चतुर्दशी भी आज तक मनाई जा रही है।

(6) कृष्ण जन्म। यह उत्सव जन्मष्टमी के नाम से मनाया जाता है। यह भाद्र, कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। इस दिन व्रत रखा जाता है और श्रीकृष्ण की पूजा बड़ी श्रद्धा से की जाती है।

(7) महा नवमी। दुर्गा का यह महोत्सव दुर्गा पूजा के लिए निश्चित है। नीलमत के आदेश अनुसार इस दिन हथियारों की पूजा का विधान है।

(8) श्राद्ध पक्ष असूज मास के कृष्ण पक्ष में मनाया जाता था। कृष्ण पक्ष की चर्तुदशी को उन व्यक्तियों का श्राद्ध होता था जो हथियारों से मारे बडशाह जैनुल आबिदीन के राज्यकाल तक भाद्र शुक्ल पक्ष थकार यात्रा उत्सव हुआ करते थे जिनके द्वारा विभिन्न स्थानों की यात्रा की जाती थी। इन दिनों मूर्तियों को गाड़ियों में सजाकर शहर में जलूस निकाला जाता था। इस जलूस के साथ राजा भी होता था। नाटक भी खेले जाते थे।

बडशाह जैनुल आबिदीन के राज्यकाल तक भाद्र शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को वितस्ता नदी का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जाता था। इस उत्सव में बादशाह सम्मिलित होता था और ब्राह्मणों को दान देता था और वितस्ता तथा सिंघ के संगम पर "व्यथ" नदी की बड़ी श्रद्धा से पूजा की जाती थी।

चौदह सौ वर्ष पूर्व नीलमत में दिए कुछ नाम अभी तक बिना किसी खास तबदीली के प्रचलित है यथा:

अनंतनाग, बीरु, भीमादेवी, भूतेश्वर (बुधि शेर) हरमुकट गंगा, नारान नाग, चक्रधर ( चकधर बिजबिहार), देवसर, गोतम नाग, हंस द्वार, जेष्ठेश्वर (जीठ पारे) कपटेश्वर (कुर्तियोर), पुष्कर, रामतीर्थ, बासुकि नाग (वासक नाग) इत्यादि।

इसी प्रकार जिन नदियों का ज़िक्र नीलमत में है उनमें धद्यपि कई नदियां लुप्त हो गई है किंतु कुछ प्रमुख नदियों के नाम मामूली परिवर्तन के बाद अभी तक प्राचीन रूप में कायम हैं यथाः

इरावती (रावी), कृष्ण गंगा, मधुमती, दूधगंगा, सिंधु, सुगंधा, चंद्रभागा, चंद्रावती, गोदावरी (कुलगाम में गुदर के पास वाली नदी ) दिरन्या (अथवा कनक नदी -क्रेक नदी), ऋषि कुल्या, सरस्वती (दिवसर की एक नदी) इत्यादि।

कश्मीरी पंडित जाति ने अपने ज्ञान, रचन और व्यवहार से भारतीय संस्कृति को अनेक चीजे देकर सारे देश की संस्कृति में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया है। ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में कश्मीर के संस्कृत पंडितों को इतना ऐतिबार प्राप्त था कि यदि विद्या केंद्र वाराणसी में कोई छात्र अपनी पढ़ाई पूरी करके डिग्री प्राप्त करना चाहता, तो उसे उत्तर की तरफ (कश्मीर उत्तर में आता है) मुंह करके कुछ पर चलना पड़ता था। इससे बढ़कर कश्मीर के पाडित्य को और कौन-सा मान दिया जा सकता था। इतना ही नहीं अपितु यदि भारत के किसी क्षेत्र में कोई विद्वान संस्कृत में कोई रचना करता तो उसके लिए कश्मीरी विद्वानों की मान्यता की प्राप्ति आवश्यक होती थी। उसके बिना संस्कृत की उस कृति को प्रामाणिक नहीं माना जाता था।

ऋषियों की वाटिका -कश्मीर की धरती अमृत-सा जल देती थी और वनों उपवनों के बीच वह शांति उपलब्ध थी जिसका नाम आज की महानगरीय सभ्यता में मिलना कठिन हो गया है। सादा पहरावा, सीधा-सादा खानपान और कुछ देने की ललक यही था कश्मीरी पंडितों का ध्येय। चाहे उन्हें ब्राह्मण नाम से पुकारा गया हो चाहे पंडित या भट्ट नाम से, बात एक ही है। यही कश्मीरी पंडित फिर अनेक खिजिया चिढ़ें अपने नामों से जोड़ते नजर आते

हैं। प्रमुख खिजियों में निम्नलिखित आज तक प्रचलित हैं: कौल, राजदान, भट्ट, पंडित, जुत्शी, खजाची, मुंशी, टेंग, मीराखोर, काक, घर, खर, बूँट, साबर्जि, खोशि, दुरानी, मदन, तोशखानी, वकील, अम्बारदार, महालवार, अर्ज़बेगी, वातल, कारदार, अँगू, बुथिं, लाबरु, गाडरु, पारिमू, पुरान, ऋषि, बुल्द, खान, साहेब, वली, गंजू इत्यादि।

विजियों की संख्या इतनी है कि इन पर एक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है और कई लेख लिखे जा चुके हैं। खैर बात हो रही थी भारतीय संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में कश्मीरी पंडितों की देन की। इस संबंध में बहुत कुछ लिखा गया है जिसको समेटने के लिए कई लेखकों ने पुस्तकें लिख डाली हैं।

साहित्य क्षेत्र

संस्कृत काव्य-शास्त्रों में काव्य प्रकाश को जो महत्व प्राप्त हुआ वह अन्य किसी काव्य शास्त्रीय ग्रंथ को प्राप्त नहीं संक्षिप्तता इस सूत्रबद्ध ग्रंथ की धुरी है। दो भागों में बारह उल्लासों द्वारा सारा काव्यशास्त्र श्लोकबद्ध किया गया है। इसमें काव्य की परिभाषा, उत्तम और मध्यम तथा निकृष्ट काव्य के लक्षणों के साथ अभिधा लक्षणा और व्यंजना काव्य गुणों की विशद् व्याख्या की गई है। काव्य के गुणों और न्यूनताओं को सोदाहरण प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रंथ की टिप्पणी लिखना एक प्रकार की Craze हो गई थी। लीजिए कुछ टीकाकारों के नाम नीचे दिए जाते हैं।

इस कृति के लेखक कश्मीरी भट्ट मम्मट थे।

1. माणिकचंद्र सूरी, जो एक जैन पंडित थे और घुरजरों के राजा जयसिंह के राज्यकाल में हुए। उनकी टिप्पणी का नाम संकेत था। वे 1160 में हुए।

2. सर्वसविति तीर्थ, त्रिभुवन नगरी में जन्मे। यह तर्क, वेदांत, मीमांसा, सांख्य और व्याकरण के विद्वान थे। इन्होंने "बालचित्तानुरंजनी" नाम से काव्य प्रकाश की टीका बनारस में जीवन के अंतिम वर्षों में लिखी।

3. जयंत ने काव्य प्रकाश दीपिका नाम से अपनी टीका 1294 ई. में लिखी।

4. सोमेश्वर, जिनका समय और स्थान ज्ञात नहीं, ने. काव्य प्रकाश पर अपनी टीका काव्यादर्श नाम से लिखी। 5. विश्वनाथ ने जो संभवतः 1290-1321 में हुए, ने "काव्यप्रकाश दर्पण" नाम से अपनी टीका लिखी।

विश्वनाथ, प्रसिद्ध ग्रंथ साहित्य दर्पण के रचयिता हैं।

6. परमानंद की टीका का नाम विस्तारिका है।

7. आनंद कवि की टीका का नाम 'निदर्शन' है।

8. इसी प्रकार महावीर भट्टाचार्य ने आदर्शन नाम से अपनी टीका का रचन किया।

अन्य टीकाकारों में श्रीवत्स लछन भट्टाचार्य, गोविंद ठाकुर, कमलाकर भट्ट, नरसिंह ठाकुर, विद्यानाथ, दीक्षित

भीमसैन, नागोजी भट्ट के नाम सुप्रसिद्ध हैं।

कल्हण की राजतरंगिनी को लीजिए यह काव्य में इतिहास लेखन की सुंदर और रोचक शैली द्वारा भारत वर्ष में इतिहास लेखन की एक अपूर्व प्रणाली का आविष्कार है। यह वह ग्रंथ है जिसे दुनियाभर के सैकड़ों विद्वानों ने कश्मीर के संबंध में लिखते हुए उद्धृत किया है। पांच हजार वर्ष का इतिहास बिना किसी भय के स्पष्टवादिता के साथ लिखा गया है।

आनंदवर्धन का ध्वन्यालोक काव्य में 'ध्वनि' शैली का अद्भुत और अपूर्व ग्रंथ है। इस प्रकार काव्य, दर्शन, व्याकरण शास्त्र, इतिहास और अनेक शास्त्रों के संबंध में कश्मीरी पंडितों ने ऐसी रचनाएं की हैं जो सदा के लिए जीवित रहेंगी और कश्मीरी पंडितों को गर्वित करती रहेंगी।

दार्शनिक विद्या में शिवस्तोत्रावली सुंदर लहरी जैसे कई मूल्यवान ग्रंथ आज तक पांडित्य का प्रमाण उपस्थित करते हैं। क्षेमेंद्र द्वारा लिखित देशोपदेश संस्कृत व्यंग्य की सुप्रसिद्ध कृति है। संस्कृत भाषा साहित्य को कश्मीरी विद्वानों ने मालामाल करके रख दिया है। एस सी रे. की पुस्तक- Early History and Culture of Kashmir में जिन संस्कृत कवियों और पड़ितों का जिक्र है उनके नाम इस प्रकार है:

वसुनंद, मातृगुप्त, भवभूति, वाकपति, मयन्य चंद्रगोमन, वल्लभ देव, शंकुक, भाकह, उद्भट्ट, वामन, लोकट, मुक्ताकना, शिव स्वामिन, आनंदवर्धन, रत्नाकार, रुद्रट, मुकुल, जयंत भट्ट, वसुगुप्त, भट्ट कलद, सोमानंद, उत्पल, रामकण्ठ, महा महेश्वर, अभिनवगुप्त, महिमा भट्ट, क्षेमेंद्र, मम्मट, सोमदेव, गुणाब्ध, क्षेमराज, भास्कर, योगराज, बिल्हन, जल्हन, मख और कल्हण |

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साभार:- अर्जुनदेव मजबूर एंव अप्रैल-मई 1995 कोशुर समाचार