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Ekadashi एकादशी, पापाङ्कुशा एकादशी पंचक आरम्भ

विदा

विदा


उसे कह तो पाता कि

जा रहा हूँ

कैसे कह पाता ?

हवा ही बेरुखी थी

उठा कर पटक दिया मुझे

सैंकडों पवर्त दूर

यहां इन खुले आसमानों तले

मैं कितनी कोशिश में जुता हूँ

इन पेड़ों पौधों से बात करने में

कोई मेरी भाषा क्या

भंगिमा तक पहचानता नहीं

गूंगा हो गया हूँ मैं

इन चालाक देवदूतों के बीच

जो मुझे जानते तो हैं पर

पहचानने से इनकार करते हैं

भला इतना बड़ा चिनार

मैं पीठ पर लाद कर लाता कैसे?

लाता भी तो क्या

यहा रख पाता?

कहते हैं कि इन्हें

केवल चिनारों का दर्द सताता है।

और जो बेवजह उजाड़ दिए गये

वो होते ही उजड़ने के लिए तो हैं

मेरे घर का नीलाम होना

लुटना जलना या हडपा जाना

कोई वारदात नहीं

एक हादसा भी नहीं

ना ही कोई गुनाह

उन सब का दर्द बहुत बड़ा है।

जिन्होंने मेरा घर छीनने का

काम किया है।

उस दर्द की दवा हो

इस के लिए दुआ में सब

पत्थर उठाये

उनको मार रहें हैं

जो उनके दर्द की दवा करते।

बहुत हकीम हैं हाहिम भी हैं ये

इन को किसी की आवश्यक्ता नहीं

बस इन को आजाद छोड़ दो

इनकी मनमानी करने को

ये जिनको हूरों और मदिरा

की जन्नत के बहकावे में

झोंक दिया जाता जिन्दा ही

आग के दहशतखानों में है।

 

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साभार: महाराज शाह एवं जून 2021 कॉशुर समाचार