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Ekadashi एकादशी, पापाङ्कुशा एकादशी पंचक आरम्भ

अब

अब


अब   पृथ्वीनाथ मधुप   

अब

वहां/पूर्वजों के पूर्वजों ... के पूर्वज की

सफल हुई साधना

ठौर दे बह चला

नीर/सतीसर का

हो गई पार्वती वितस्ता

कण-कण तपस्या

पावन धरा

वह स्वर्ग था!

 

वह स्वर्ग थाः

श्वेत चकाचौंध शिखरों बीच

जगमग हुआ/अमरेश्वर का

वसु-अभिनव बन त्रिकू फूटा

देह-देह गेह हुआ/शिव का

 

वह स्वर्ग था:

घाटी-दर-घाटी मिट्टी

फूल इन्द्रधनुषी

महक जिसकी/हवा बांटती

ऋचापाठरत झरने

 

लुटाता खुले हाथ/उजास

सूरज/मुक्त आकाश पर का...

वह स्वर्ग था

 

स्वर्ग अब भी?

नहीं?/ क्यों नहीं?

बेआंख-कान के बन्दों से अब ऊब

तुम्हारी/हां, तुम्हारी ओर ही

सरका रहे/प्रश्न ये धधकते! .

अस्वीकरण :

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साभार:     पृथ्वीनाथ मधुप एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य