Bhishma Sharashayya भीष्म शरशय्या
भीष्म शरशय्या पर थे। उत्तरायण की प्रतीक्षा थी। युद्ध रुक चुका था। सभी उनके पास आते एवं उनसे धर्म का मर्म पूछते। वे यथोचित जिज्ञासाओं का उत्तर भी देते। पांडवों का पूरा दल उन्हें प्रणाम करने आया। पितामह को ऐसे लेटा देख सभी का शोक से विगलित होना स्वाभाविक ही था, पर द्रौपदी उन्हें देखकर हँसने लगी। ऐसे समय में यह असामाजिक आचरण क्यों ? युधिष्ठिर ने उसे उलाहना दिया। तब द्रौपदी बोली- 'मुझे सीधे पितामह से बात करने दीजिए। जब आप कौरवों के साथ थे व मेरी लाज लुट रही थी तब आपका यह धर्मज्ञान कहाँ चला गया था तात!" भीष्म बाले- 'द्रौपदी! तेरा असमंजस सही है। कुधान्य से बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी । उचित-अनुचित का भेद भी नहीं था। तो मेरा चिंतन क्या करता। अब रक्त घावों से रिस रहा है तो धर्मोपदेश का सही समय व अधिकार मेरे पास है।" द्रौपदी का समाधान हो गया ।
साभारः- सितंबर, 2012 % अखण्ड ज्योति, पृष्ठ संख्या - 39