Argument तर्क

Argument तर्क

तर्क का सदुपयोग भी है और दुरुपयोग भी। तर्क सत्य की अभिव्यक्ति के लिए हो तो ज्ञान को जन्म देता है। तर्क यदि झूठ के लिए किया जाए तो अज्ञान जन्म लेता है। सत्य के साथ जुड़कर तर्क, प्रमाण बनता है। असत्य के साथ जुड़कर तर्क, संशय बन जाता है। सत्य घटनाक्रम की वास्तविकता होता है और झूठ बस, एक कोरी कल्पना इसीलिए सत्य के साथ तर्क जितना अधिक जुड़ता है, उतना अधिक प्रमाण में वृद्धि होती है। झूठ के साथ तर्क जितना ज्यादा जोड़ा जाता है, संशय उतने ही अधिक बढ़ते जाते हैं।

स्थिति एक होने पर, भाव के अलग होने से तर्क बदल जाते हैं। तर्क, भाव के पीछे चले तो सत्य के अनुसंधान की प्रेरणा मिलती है। यहाँ तक कि परमात्मा की खोज में भी संलग्न हुआ जा सकता है, लेकिन तर्क के पीछे यदि भाव को घसीटें तो मुश्किल हो जाती है। तर्क का प्रयोग सभी करते हैं। नास्तिक और आस्तिक, दोनों तर्क से स्वयं को प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं, लेकिन नास्तिक के तर्क किसी को किसी अनुभूति तक नहीं ले जा सकते। बस, केवल उसके संशय को बढ़ा सकते हैं जबकि आस्तिक के तर्क, जीवन को सार्थक अनुभूति देने में समर्थ होते हैं।

महान संत और दार्शनिक आचार्य शंकर के तर्कों में तार्किकता का संपूर्ण सदुपयोग है; जबकि आम जीवन में प्रायः तर्क का दुरुपयोग होता रहता है। आचार्य शंकर ने पहले कठिन साधना की, फिर सत्य की अनुभूति अर्जित की। बाद में उन्होंने इस अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए तर्क प्रस्तुत किए। उनसे बड़ा तर्ककुशल खोजना मुश्किल है, लेकिन उनके तर्क, सत्य की अनुभूति से, भाव से बंधे हुए हैं। वे तर्क के द्वारा अपनी अनुभूति का परिचय देते हैं। उसे संप्रेषित करने का प्रयत्न करते हैं। इतना ही नहीं वे अपने तर्कों से औरों के लिए सत्य की अनुभूति के द्वार खोलते हैं, जबकि नास्तिकों के तर्क, सत्य की अनुभूति से विहीन तर्क, केवल सत्य को प्रबंचित करते हैं, सुनने वाले जन-मन को प्रवंचना व संशय में निमग्न करते हैं। इसलिए तर्क को अभिव्यक्ति तक सीमित न रखकर अनुभूति में बदल देने में ही इसकी सार्थकता है।

साभारः- सितंबर, 2016, अखण्ड ज्योति, पृष्ठ संख्या - 01