Service to Mankind जीवसेवा

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भगवान ने देवर्षि नारद को उपदेश दिया कि पृथ्वीलोक जाकर कुछ भक्तों के सत्कार्यों की जानकारी लेकर आना। नारद जी इस उद्देश्य से पृथ्वी भ्रमण पर निकल गए। वे धरती पर अनेक व्यक्तियों से मिले, जो घंटों भगवान की पूजा उपासना में लगे रहते थे, परंतु उनके सत्कर्मों की गणना ज्यादा नहीं थी। ऐसे में ही उन्हें एक दिन एक ग्रामीण व्यक्ति वृक्ष सींचता हुआ मिला। सींचने के बाद वह फावड़े से जमीन खोदने लगा। नारद जी ने उससे पूछा- "वह क्या कर रहा है ?" उसने उत्तर दिया–“वह एक नए वृक्ष को लगाने की तैयारी कर रहा है।'' नारद जी ने उससे पुनः पूछा–"क्या वह कुछ पूजा-उपासना करता है ?''

उत्तर में ग्रामीण बोला-"महाराज! मैं भजन-पूजन नहीं जानता। बस, इतना जानता हूँ कि सृष्टि के सारे प्राणी एक ईश्वर की संतान हैं। उनको भगवान का अंश मानकर उनकी सेवा में लगा रहता हूँ। पौधे लगाता हूँ, ताकि वे वृक्ष बनकर राहगीरों को फल व छाया प्रदान करें। तालाब खोदता हूँ, ताकि पशु-पक्षी व मनुष्य पानी पीकर तृप्त हो सकें। नारद जी ने उसका ब्योरा भी अपने खाते में दर्ज कर लिया। जब वे वापस देवलोक को पहुँचे और वहाँ भगवान के सम्मुख सबके ब्योरे प्रस्तुत किए तो भगवान बोले– “मेरा सबसे प्रिय भक्त वही ग्रामीण व्यक्ति है, जो सृष्टि के हर प्राणी को मेरा अंश मानकर उनकी सेवा कार्य में निरत रहता है।" जीवसेवा ही भगवान की सबसे बड़ी भक्ति है ।

साभारः- सितंबर, 2016, अखण्ड ज्योति, पृष्ठ संख्या - 59