Resolution of Dissatisfaction असंतोष का समाधान

Resolution of Dissatisfaction असंतोष का समाधान

नगरसेठ अपनी गुत्थियों के समाधान में सहायता प्राप्त करने के लिए मंदिर में पहुँचे। देवता को प्रसन्न करने के लिए वे थाल भरकर मोती और नैवेद्य लाए थे।

मंदिर छोटा था। उसमें एक भक्त पहले से ही घुसा बैठा था। झरोखे में से झाँककर सेठ ने देखा वह फटे कपड़े वाला, अस्थि-पंजर जैसा कोई दरिद्र व्यक्ति था, पर वह कृतज्ञता और प्रसन्नता भरे अश्रुबिंदु चरणों पर चढ़ाता हुआ प्रार्थना कर रहा था और कह रहा था कि धन्य है आपका वरदान कि सुख की नींद सोता हूँ और कोई मुझसे ईर्ष्या नहीं करता।

सेठ ने पूजा तो की, पर यह प्रश्न उसके मन में उफनता ही रहा। मैं इतने समय से पूजा करता आ रहा हूँ, पर मेरे ईर्ष्यालु बढ़ते ही जा रहे हैं और मेरा सुख-चैन घटता ही जा रहा है। कहाँ मेरी बहुमूल्य पूजा सामग्री और कहाँ इस दरिद्र के अकिंचन से उपहार ! क्यों मेरी उपेक्षा और क्यों दरिद्र पर अनुग्रह ?

संदेह को लेकर सेठ प्रधान याजक के पास पहुँचे। याजक ने देवता से पूछकर तीसरे दिन उत्तर देने को कहा। तीसरे दिन अपने असंतोष का समाधान प्राप्त करने के लिए सेठ सवेरे ही याजक के पास जा पहुँचे। उन्होंने देवता का अभिमत सुनाया - "आप देवता पर सेवक की तरह काम करने को दबाव डालते हैं और दरिद्र ने स्वामी मानकर अपने हृदय में उन्हें स्थान दिया हुआ है। सो देवता ने सेवक वाले की अपेक्षा हृदय में स्थान देने वाले को अपना सच्चा वरदान देने का निश्चय किया।"

साभारः- अगस्त, 2004, अखण्ड ज्योति, पृष्ठ संख्या -30