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Ekadashi एकादशी, पापाङ्कुशा एकादशी पंचक आरम्भ

चिन्तन


चिन्तन

स्वामी विवेकानन्द  

एक और नया भारत कहता है कि पाश्चात्य भाव, भाषा, खान- पान, वेश-भूषा और रीति का अवलम्बन करने से ही हम लोग पाश्चात्य जातियों की भांति शक्तिमान हो सकेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि मूर्ख। नकल करने से भी कहीं दूसरों का भाव अपना हुआ है? बिना उपार्जन किए कोई वस्तु अपनी नहीं होती। क्या सिंह की खाल पहनकर गधा कहीं सिंह हुआ है ?

 

एक ओर नवीन भारत कहता है कि पाश्चात्य जातिया जो कुछ कर रही है, वही अच्छा है। अच्छा न होता तो वे ऐसी बलवान हुई कैसे ? दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खूब होती है पर क्षणिक होती है। बालको। तुम्हारी आंखें चौंधिया रही हैं. सावधान।

 

उपनिषद् युगीन सुदूर अतीत में, हमने इस संसार को एक चुनौती दी थी न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः - न तो सन्तति द्वारा और न सम्पत्ति द्वारा, वरन् केवल त्याग द्वारा ही अमृतत्व की उपलब्धि होती है। एक के बाद दूसरी जाति ने इस चुनौती को स्वीकार किया और अपनी शक्ति भर संसार की इस पहेली को कामनाओं के स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न किया। वे सबकी सब अतीत में तो असफल रही हैं-पुरानी जातियां तो शक्ति और स्वर्ण की लोलुप्ता से उद्भूत पापाचार और दैन्य के बोझ से दबकर पिस- मिट गई और नई जातियां गर्त में गिरने को डगमगा रही हैं। इस प्रश्न का तो हल करने के लिए अभी शेष ही है कि शांति की जय होगी या युद्ध की, सहिष्णुता की विजय होती या असहिष्णुता की, शुभ की विजय होगी या अशुभ की शारीरिक शक्ति की विजय होगी या बुद्धि की सांसारिकता की विजय होगी या आध्यात्मिकता की। हमने तो युगों पहले इस प्रश्न का अपना हल ढूंढ़ लिया था.... हमारा समाधान है : असांसारिकता त्याग।

 

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1996 नवम्बर कोशुर समाचार