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Ekadashi एकादशी, पापाङ्कुशा एकादशी पंचक आरम्भ

परमात्मा का स्व


परमात्मा का स्व

ओंकार नाथ गंजू  

 

आरम्भ में यह जानना आवश्यक है कि ध्यान किसे कहते हैं? 'ध्यानं निर्विषयं मनः' अर्थात् सांसारिक विषय पदार्थों से मन को हटाकर उसे इष्ट पर केन्द्रित करना यान कहलाता है।

ध्यान दो प्रकार का है स्थूल, सूक्ष्म । साकार ध्यान को स्थूल और निराकार ध्यान को सूक्ष्म ध्यान कहते हैं। स्कूल ध्यान के अंतर्गत विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां, आकृतियां, प्रतिमाएं, चित्र, देवालय आदि आते हैं और निराकार में आकार रहित परमात्मा का ध्यान करना होता है। जब तक हम सूक्ष्म को ग्रहण नहीं कर पाते, तब तक हमें मूर्तियों के सहारे उपासना करनी होती है।

जैसा कि हम जानते हैं कि मन बहुत चंचल है, इसको वश में करना उसी प्रकार दुष्कर है जिस प्रकार वायु को वश में करना दुःसाध्य है। प्रायः पूजा, अर्चना या ध्यान के समय हमारा मन चारों दिशाओं में भटकता रहता है फलस्वरूप, ध्यान खंडित हो जाता है। गीता में मन को वश करने की दो विधियां बताई गई है अभ्यास (By practice) और वैराग्य (By non-attachment) के द्वारा उसे वश में किया जाता है।

परमेश्वर के स्वरूप के बारे में उपनिषद् में कहा गया है

"सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽचिशिरो मुखम्। सर्वतः श्रुतिमान् लोके, सर्व आवृत्य तिष्ठति ।" अर्थात् उस परमात्मा के हाथ-पैर, आंखें, सिर इत्यादि सर्वत्र व्याप्त हैं। वे सब कार्य करने में समर्थ हैं, सर्वशक्तिमान हैं, सर्व रक्षक हैं, अपने भक्त की पुकार सुनने के लिए उनके कान सर्वत्र व्याप्त हैं।

उसके निवास के बारे में शास्त्र कहता है

"अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषः अंतरात्मा,

सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।

हृद्य मन्तीशो मनसा अभिक्लृप्तो,

य एतद् विदुर अमृता ते भवन्ति ॥"

अर्थात् अंगूठे के परिमाण वाला वह अंतर्व्यापी परमात्मा सदा मनुष्यों के हृदय में स्थित है और मन का स्वामी है। जो इस तरह परमेश्वर को जानते हैं, वह अमर बन जाते हैं।

कहते हैं

"न काष्ठे विद्यते देवो,

न पाषाणे न मृण्मये।

भावो हि विद्यते देवो,

तस्मात् भावो हि कारणम् ॥”

अर्थात् भगवान न लकड़ी की मूर्ति में, न पत्थर की मूर्ति में और न ही मिट्टी की मूर्ति में विद्यमान हैं। यह केवल आस्था, श्रद्धाभाव तथा अटूट विश्वास है जो हम इन मूर्तियों को भगवान मानते हैं।

संत तुलसीदास कहते हैं।

"जाकी रही भावना जैसी।

प्रभु मूरत तिन्ह देखिए तैसी।"

इसी आशय को दूसरे शब्दों में लल्लेश्वरी अभिव्यक्त करती हुई कहती हैं

"देव वटा देवर वटा,

हेरि बुन छुय हकवाठ |

पूज कस करख हयो बटा,

कर मनस त पवनस संयाठ ॥"

अर्थात् मूर्ति पत्थर की देवालय भी पत्थरों का बना है। ऊपर भी पत्थर, नीचे भी पत्थर अरे पंडित तुम किसकी पूजा करते हो। मन और प्राणवायु का संगठन करो।

संत कबीर कहते हैं "जिस तरह हिरण की नाभि में कस्तूरी (एक सुगंधित पदार्थ नाफा) होती है और हिरण उस सुगंध को वन में ढूंढता फिरता है, उसी प्रकार परमात्मा भी प्रत्येक मनुष्य के हृदय में स्थित है, पर उसे वह दिखाई नहीं देता है।"

परमात्मा कैसे जाना जा सकता है। इस विषय में उपनिषद् में कहा गया है

"सत्येन लम्यः तपसा ह्येषो आत्मा,

सम्यक् ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् ।

अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयोहि शुभ्रो,

यं पश्यंति यतयः क्षीण दोषाः ॥"

अर्थात् यह परब्रह्म परमात्मा, जो शरीर के भीतर हृदय में विराजमान, प्रकाशमय, ज्ञानस्वरूप है, जिसको सब प्रकार के दोषों से रहित प्रयत्नशील साधक ही सत्य भाषण, तप, संयम, यथार्थ ज्ञान तथा ब्रह्मचर्य के पालन करने से जाना जा सकता है।

यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि परम तत्त्व को जानने हेतु गुरु का होना आवश्यक है। गुरुकृपा साधक का मार्ग प्रशस्त करती है तथा उसके लक्ष्य प्राप्ति में महान भूमिका निभाती है। संसार में जितनी भी महान आध्यात्मिक विभूतियां उत्पन्न हुई हैं, गुरुकृपा से ही हुई हैं।

कबीरदास कहते हैं

"गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काको लागे पाय ।

बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥"

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साभार:- ओंकार नाथ गंजू एंव दिसम्बर 2022 कॉशुर समाचार

 

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